मंगलवार, 9 मई 2017

ख़ूबसूरत

घुलती है मुस्कुराहटें
जब उसके सवालों में,
मानो उगता है कमल
कोई झाड़ियों में छिपकर,
और उगता है सूरज
कहीं हिमालय में;

सजती है जब कभी यूँ ही वो, 
तो लगता है
की पूरी कायनात सजी हो,
चूमती है जब जमी
कदमों को उसके,
तो लगता है  की कहीं दूर
कोई मेनका नची हो;

वो रूठे तो लगे 
हुई कुदरत से कोई रजा हो,
खुदा खुद आकर पूछे 
क्यूँ मुझसे ख़फ़ा हो;

देख ले मुड़कर वो तो जिन्दा कर दें,
जैसे आँखों में उसके कोई ख़्वाब बनाता हो,
वो आँखे जैसे बातें करती हो,
होंठ  खोले तो लगे अधरों पर
बाँसुरी मचलती हो;

उसके लबों ने फिर लबों को छुआ,
धड़कने रूककर चली फिर लड़खड़ा गईं;
पलकें हो गई आँखों से ख़फ़ा,
न झुकी उनपर बेदर्द रुला गईं;
नींद आयी भी तो कुछ यूँ आयी,
मैं रात भर जागा, मुझे रात भर जगा गई;

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