रविवार, 21 मई 2017

रिश्ता

जो रिश्ता बादलों का वृक्ष से है,.          
और जल का जो रिश्ता है गगन से;
जो रिश्ता पथिक बनाता राह में है,
और जो पंछी बनाता है शाख से;

मेरी अंतस और मेरी कल्पना में,
ऐसे बनाया है एक रिश्ता, 
तुमने मेरी कलम से;

जैसे सागर की लहरों में उन्माद भीषड़,
और ह्रदय जल होकर भी अचल है;
कहने को शांत दिखती है उच्चिस्ट चोटी,
लेकिन समेटी है अंतस में असंख्य धारा;

अपनी मुस्कुराहट और अपने नयन से,
ऐसे ही कर दिया है मन को अशांत तुमने;

जैसे सती ने शिवा के वैराग्य मन में,
भर दिया था, अनन्त प्रेम की तरलता;
और कृष्ण की अधूरी भावना को,
बस एक राधा की ही पूर्णता का था सहारा;

वैसे ही मेरे मरुस्थल और बेजान मन को,
एक तेरी सरलता की सजलता का आसरा;

ऐ मेरी कल्पना मुझमे यूँ बसो तुम,
बेरंग हृदय को मेरे रंगीन कर दो;
तेरी खुसबू बहने लगे गूथकर मेरे लहू से,
मुस्कुराकर मुझसे  ऐसी बात कह दो || 


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