रविवार, 2 जुलाई 2017

जैसे तुझे कभी देखा ना हो

यूँ तो कभी कई दिन कई साल युहीं गुजरते हैं; फिर कभी अचानक, किसी रात के किसी समय के एक पल में, ऐसा लगता है मानो मुझमेँ मेरे अंतरंग, मेरे अंतस में कोई बिता लम्हा, कोई बात, कोई पृथक भाव, कोई अपूर्ण इच्छा, कोई ख्वाब, कभी क्रोध सा और कभी प्रेम सा, कुछ झिलमिल सा, कुछ जैसे पानी में कोई परछाई मचलती है, फिर आँखे खुद में मीजने लगती हैं, मेरे हाथ मेरे सीने से मेरे कपड़ो को खींचते हैं, साँसे यूँ चलती है जैसे थकी हो, धड़कने अजीब बेतहाशा भागती हैं, सीने में कुछ ऐसा होता है, जैसे समंदर खुद में कुछ ढूढ़ रहा हो जो हो ही ना; एक चेहरा जो पहले कभी ना देखा हो, एक ख्वाब जो पहले कभी ना सोचा हो, तड़फ ऐसी की जैसे डूबता हुआ कोई किसी से कुछ कहना चाहता हो और कुछ बाकी ना हो, फिर तू आती है नजर यूँ की जैसे तुझे कभी देखा ना हो  |

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