रविवार, 9 जुलाई 2017

बारिश

ज रात कुछ ज़्यादा काली,
और हवा में भी ठंडक है,
बादल छाए हैं आसमान में,
घुमड़ घुमड़ कर नाच रहें हैं,
कभी चमकती बिजली भीषण,
पल भर का उजियारा भर कर,
इक्के-दुक्के तारे दिखते,
वो भी हैं छुपते छुपते,
इंद्रधनुष में चांद उगा है,
बादलों में से झांक रहा है,
कभी-कभी काले बादल में,
उसकी छाया भी हो जाती ओझल
लगता है कल बारिश होगी,
शायद कल बारिश होगी।

मिट्टी की भीनी-भीनी ख़ुशबू,
और हवा का शोर-शराबा।
आसमान से कूदी बूंदों,
की छत की टकराहट से,
और बहते पानी की आवाजों में,
बिस्तर पर लेटे-लेटे, मुस्काये,
कौतूहल वश जो मैंने आँखें खोली,
घड़ियों में सुबह के सात बजे थे,
पर छाया था चाहुओर अंधेरा,

चादर की सिलवटों से उठकर,
नींद भरे आलस से चल कर,
ज्यों मैंने खिड़की का दरवाज़ा खोला,
एक हवा का ठंडा झोका,
और कुछ छोटी ठंडी बारिश की बूँदे,
टकरायीं चेहरे पर आ कर,
इक सिथरन सी और ताज़गी,
ऐसे छायी मन के भीतर,
जैसे कोई ठंडे हाँथों,
से छेड़ रहा हो गाल पकड़ कर
खिड़की के बाहर पेड़ो से,
टपक रही बारिश की बूंदे,
नई नवेली नहायी पत्तियाँ,
डोल रही है अपने रस में,
खुश-खुश सी दिखती हैं,
जैसे हस्ती हो इठलाकर।

पत्तियों के झुरमुठ में,
दिखता है डालों में एक झरोखा,
झरोखे में कुछ सूखी घासों का,
एक घोंसला दिखता है,
जिसमें बैठा है एक विहंगम,
अपने छोटे बच्चों को लेकर,
कभी देखता बादल को, 
और कभी बच्चों को ऐसे,
जैसे कुछ उनको सुना रहा है,
किसी बारिश की बीती बातें,
या शायद कुछ सिखा रहा है,
कैसे पंख भीगने से बचना,
या फिर उनको बता रहा है,
ज़िंदगी जीना बहुत कठिन है,
कभी बारिश और धूप कभी,
ऐसे है मौसम के अंदर,
जैसे दुख-सुख रहते हैं,
हर पल जीवन के भीतर।

बादल अब छटते नज़र आते हैं,
फिर से उजियारा छाता है,
पूर्व दिशा में धुन्धला सा,
सूरज निकला आता है,
चलो फिर से एक बार,
खुद को भूल जाये हम,
चलो फिर से आराम छोड़ कर
आराम कमाएँ हम।।

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