रविवार, 28 मई 2017

व्याकुल

यूँ तो तुझसे की वो,
सारी बात पुरानी होती है,
जाने क्यूँ फिर भी वो
सारी रात सुहानी  होती है,
सूरज बूढ़ा होता है,
और रात जवां जब होती है,
आँखों को अपने  देता हूँ,
दिल से बातें होती हैं,
आँखे तो रोई होती हैं,
पर अब दिल भी रोता है,
प्यार बिना इस दुनिया में,
जाने क्या क्या होता है ?

रातें काली होती है,
एक चाय की प्याली होती है,
एक भावना उठती है,
हर बात सवाली होती है,
आखिर क्यूँ ऐसा क्यूँ ,
क्या मैं ही बुरा हूँ सबसे ?
रात गुजर गयी बैठा हूँ,
तेरी याद में जाने कबसे,
हर चीज़ का वादा करके,
उसको मांग चुका हूँ रब से,
फिर क्यूँ  रूठी बैठी है,
कुछ तो कहे वो लब से,

आज जाके देखा है,
अस्को का सागर कैसा होता है,
क्यूँ आँखे रोती है,
और दिल क्यूँ नहीं रोता है,
दिल नीरस तो तब होता है,
जब सबको ये बात कहानी लगती है,
सुनने में कहते है लोग,
ये बात निराली लगती है,

 जब जलता हुआ सूरज,
सागर में जा मिलता है,
सारे फूल झुक जाते है,
दिल का फूल जब खिलता है,
रुठ के जाना मुझसे तेरा,
जब गददारी लगता है,
अब गुजरे की तब गुजरे,
ये पल कितना भारी लगता है,
सावन जब आ जाता है,
बारिश चोटों सी लगती है,
दिल अकेला तो तब होता है,
जब बाहर महफ़िल सजती है,

ये तो ज़मी की फिदरत है,
हर चीज़ को जो वो सूखा देती है,
वरना तेरी याद में रोयें अश्को का,
एक अलग समंदर होता,
आज मै इतना रोऊँगा,
तुझे कोसों दूर रुला दूंगा,
आज तू भी रोयेगी,
और आज मैं तुझको भुला दूंगा || 

रविवार, 21 मई 2017

रिश्ता

जो रिश्ता बादलों का वृक्ष से है,.          
और जल का जो रिश्ता है गगन से;
जो रिश्ता पथिक बनाता राह में है,
और जो पंछी बनाता है शाख से;

मेरी अंतस और मेरी कल्पना में,
ऐसे बनाया है एक रिश्ता, 
तुमने मेरी कलम से;

जैसे सागर की लहरों में उन्माद भीषड़,
और ह्रदय जल होकर भी अचल है;
कहने को शांत दिखती है उच्चिस्ट चोटी,
लेकिन समेटी है अंतस में असंख्य धारा;

अपनी मुस्कुराहट और अपने नयन से,
ऐसे ही कर दिया है मन को अशांत तुमने;

जैसे सती ने शिवा के वैराग्य मन में,
भर दिया था, अनन्त प्रेम की तरलता;
और कृष्ण की अधूरी भावना को,
बस एक राधा की ही पूर्णता का था सहारा;

वैसे ही मेरे मरुस्थल और बेजान मन को,
एक तेरी सरलता की सजलता का आसरा;

ऐ मेरी कल्पना मुझमे यूँ बसो तुम,
बेरंग हृदय को मेरे रंगीन कर दो;
तेरी खुसबू बहने लगे गूथकर मेरे लहू से,
मुस्कुराकर मुझसे  ऐसी बात कह दो || 


गुरुवार, 18 मई 2017

हिन्दुस्तान

तुम भरत रक्त के वंशज हो,
और दधीचि के महादान,
तुम वेदों के नायक हो,
और चक्रपाणि के गीता-ज्ञान;

तुम साक्षी हो महासमर के,
रामायण के, दसग्रीव मरण के,
तुम साक्षी हो महाप्रलय के,
कुरु वंश के, दुर्योधन के;

तुम जन्मदाता हो, देवताओं के,
चक्रपाणि के,महाकाल के,
जगतजयी महादुर्गा के,
जगतपिता महादेव के;

तुम जन्मदाता हो, योद्धाओं के,
आल्हा-उदल पृथ्वीराज के,
गोरा-बादल महाराणा के,
अशोक और बिन्दुसार के;

तुम जन्मदाता हो महागुरुओं के,
देवगुरु के,परशुराम के,
चाणक्या के, गुरुनानक के,
और गुरुवर श्रीमाली के;

उत्तर में नभचुम्बी चोटी,
और दक्षिण में जलधि महान,
तुम अतुल्य हो, अद्वितीय हो,
तुम गौरवमयी हो हिंदुस्तान;

चारो तरफ थी खुशहाली जहाँ,
पुरे विश्व में था यशगान,
सुर भी जिसको करबद्ध नमन कर,
नित नित करते थे प्रणाम;

९०० वर्ष की दुर्लभ दासता,
और क्षीण हुआ भौतिक मान,
क्षीण हुआ तेरा संचित धन,
"सोने की चिड़या" यह गया नाम; 

पर वाह रे हिन्दुतान,
है तेरे पुत्रो पर अभिमान,
सुखदेव भगत और राजगुरु,
विस्मिल नाना और आज़ाद;

असफाक उल्लाह और लाला लाजपत,
बल्ल्भभाई को प्रणाम;
अदभुत है तेरी गोद,
अदभुत वीरों का वरदान;

उदय हुआ जो अस्त था सूरज,
और चमक आया ललाट,
अपने रक्त से चरण धोकर,
संतानो ने लौटया सम्मान;

भारत मेरी जन्मभूमि है,
मुझे है तुझपर अभिमान,
इसी धरा पर पला बढ़ा मैं,
मैं हिंदुस्तान की संतान; 

तुम विकासशील हो, अलौकिक हो,
तुम आदि और अनन्त बनो,
समा लो खुद में समग्र विश्व को,
भारत विश्वगुरु बनो || 

मंगलवार, 9 मई 2017

ख़ूबसूरत

घुलती है मुस्कुराहटें
जब उसके सवालों में,
मानो उगता है कमल
कोई झाड़ियों में छिपकर,
और उगता है सूरज
कहीं हिमालय में;

सजती है जब कभी यूँ ही वो, 
तो लगता है
की पूरी कायनात सजी हो,
चूमती है जब जमी
कदमों को उसके,
तो लगता है  की कहीं दूर
कोई मेनका नची हो;

वो रूठे तो लगे 
हुई कुदरत से कोई रजा हो,
खुदा खुद आकर पूछे 
क्यूँ मुझसे ख़फ़ा हो;

देख ले मुड़कर वो तो जिन्दा कर दें,
जैसे आँखों में उसके कोई ख़्वाब बनाता हो,
वो आँखे जैसे बातें करती हो,
होंठ  खोले तो लगे अधरों पर
बाँसुरी मचलती हो;

उसके लबों ने फिर लबों को छुआ,
धड़कने रूककर चली फिर लड़खड़ा गईं;
पलकें हो गई आँखों से ख़फ़ा,
न झुकी उनपर बेदर्द रुला गईं;
नींद आयी भी तो कुछ यूँ आयी,
मैं रात भर जागा, मुझे रात भर जगा गई;