मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

भावनाओं का शहर

जिस नई पक्की सड़क के मोड़पर,
तुम्हारा घर है,
उसी मोड़ से मुड़ती है,
एक कच्ची अदृश्य गली,
जिससे कुछ दूर आगे,
मेरे भावनाओं का शहर है;

वहाँ है एक मेरा खुद का समंदर,
जिसे कभी मैंने अपने आसुंओ से भरा था,
और है एक राई का पहांड है,
जो मुझे तुमसे दूर करने के लिए बना था;

वहाँ बस सावन का मौसम होता हैं,
और वहाँ की बारिशें रंगीन होती हैं,
वहाँ के पेड़ों पर पत्ते नहीं खत उगते हैं,
कुछ सुने, कुछ पढ़े, कुछ कहे-अनकहे खत;

वहाँ हवायें खतों को लेकर उड़ा करती हैं,
और आँधियों  में शब्द चीख़ते हैं,
बारिशों के पानी में मिलकर,
वो पैरों से लिपट कर बहते हैं;

वहाँ तालाबों से निकली चिकनी मिट्टी का एक,
एक कमरे का घर है,
जो बड़ी बड़ी घासों के बीच,
अब भी नजर आता है,
अंदर मकड़ी के जालो के बीच,
एक तस्वीर लगी है,
जिसका चेहरा अब मुश्किल से समझ आता है;

बहुत समय पहले वो किसी का महल था,
और वहाँ घाँसे नहीं फूल उगा करते थे,
वहाँ की हवाओं में जो अल्फाज उड़ा करते थे,
मलय समीर में मिलकर जैसे साज़ उड़ा करते थे;

तब वो समंदर एक कमलों से भरा, 
तालाब  हुआ करता था,
और वो पहांड मैदान हुआ करता था,
किसी की हसीं गुंजती थी बस वहां,
और तितलियाँ उसे ही फूल समझकर,
उसके हाथों पर बैठ जाया करती थी;

पहले मैं वहाँ अक्सर जाया करता था,
उसी महल में बैठकर गुनगुनाया करता था,
अब वो उजड़ गया है, खंडर है,
उसकी हवाओं में भी बस ज़हर है,
पर हाँ! वो कल भी मेरा शहर था,
आज भी मेरा शहर है  | | 

3 टिप्‍पणियां: